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अश्विनी प्रताप सिंह |

आज के इस दौर में चारों तरफ एक ही शोर सुनाई देता है- विकास। सरकारी हो या गैर- सरकारी, अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो या अशिक्षित, शहर हो या गांव, सभी जगह चर्चा है विकास की। मानव सभ्यता जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, हमारी इच्छाएँ भी बढ़ती गईं और इस अंधी दौड़ में सही और गलत की परख ही भूल गए या यूं कहे अपने-अपने ढंग से सही और गलत को आंकने लगे। विकास की प्रतिस्पर्धा की ऐसी आंधी चली कि हम प्रकृति और पर्यावरण को ही भूल गए। अपने लिए सुविधाएँ जुटाने में प्रकृति-प्रदत्त  चीजों का इस कदर दोहन किया कि प्रकृति भी चीत्कार कर उठी। प्रकृति ने जिस पर्यावरण को मानव का सहयोगी बनाया, उस पर्यावरण को मानव समाज ने अपने कृत्यों के द्वारा अपना दुश्मन बना लिया। विभिन्न कार्यों के माध्यम से आज हमने अपने पर्यावरण को इस कदर दूषित और विषैला बना दिया है कि हमारी सांस ही हमारी दुश्मन बन बैठी है। विकास की इस अंधी दौड़ में कभी भी इतनी फुर्सत ही नही मिली कि हम सोच सके कि जो विकास हमने किया है, उसकी कीमत क्या चुकाई है?

यहां पर एक अहम सवाल और भी उठता है कि इस पर्यावरणीय त्रासदी में क्या सभी की भागीदारी एक समान है? कही ऐसा तो नही है कि दुनिया के कुछ प्रतिशत लोगों की करनी का भुगतान पूरी मानव जाति को करना पड़ रहा है? कुछ स्वार्थी तत्वों की क्षुधा को शांत करने के लिए पूरे पर्यावरण को दाँव पर लगा दिया गया और इल्जाम सम्पूर्ण मानव जाति पर चस्पां कर दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम को समझने की जरूरत है।

एक बार महात्मा गांधी से पूछा गया था कि क्या वे भारत में भी ब्रिटेन की तरह का विकास चाहते हैं तो उन्होंने जवाब दिया था कि इतने छोटे से देश को एक खास तरह की जीवनशैली प्राप्त करने के लिए दुनिया के इतने बड़े हिस्से को उपनिवेश बनाना पड़ा तो भारत जैसे विशाल देश को तो न जाने कितने बड़े उपनिवेश की जरूरत होगी।दूसरे शब्दों में इसे समझने का प्रयास करें तो उनका कहना था कि बाहरी शानो-शौकत पर आधारित विकास जो दूसरों के संसाधनों की लूट-खसोट पर आधारित हो कभी भी आदर्श या अनुकरणीय नही हो सकती है। इस बात को समझना होगा कि विलासितापूर्ण जीवनशैली किसी न किसी स्तर पर असमानता बढ़ाने और दूसरों के अधिकार और संसाधनों के हड़पने पर आधारित है। जब तक यह विषमताकारी सोच बरकरार है, तब तक पर्यावरण सुरक्षित नही है। विश्व के संसाधनों का उपयोग ऊपरी तबके के 15 प्रतिशत लोगों की भोग-विलासिता के लिए हो रहा है तो स्वाभाविक है कि दूसरे लोगों का हक मारा जा रहा है और शेष 85 प्रतिशत गरीबी और अभाव में जीने को मजबूर है।

विगत कुछ दशकों में पर्यावरण पर बहुत बातचीत हुई है और इस चर्चा का परिणाम यह निकला है कि विषमता की खाई कम होने की जगह और चौड़ी हो गई है। ऑक्सफेम और अन्य संस्थाओं के आकलन के मुताबिक दुनिया में सबसे अमीर और सबसे गरीब आदमी के आय में लगभग 250 प्रतिशत का अंतर है। विकसित या अमीर देशों में लगभग 23 प्रतिशत लोग ही रहते हैं मगर उनके पास विश्व की आय का 85 प्रतिशत हिस्सा है। जबकि विकासशील देशों में लगभग 77 प्रतिशत लोग रहते है मगर विश्व की आय का 15 प्रतिशत हिस्सा ही है। मतलब साफ है कि पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर केवल बातचीत और मीटिंगों का दौर तो खूब चल रहा है मगर धरातल पर सार्थक परिणाम के बजाय विषमता और बढ़ती जा रही है।

वर्तमान समय में इस धरा और वायुमंडल की ऐसी स्थिति बिलकुल नहीं है कि अनियंत्रित आर्थिक रफ्तार और औद्योगिक विस्तार हो। लोगों की आवश्यकताओं को कुछ इस तरह से पूरा किया जाए कि प्रकृति और पर्यावरण के साथ अन्याय न हो और यह तभी संभव है, जब ऊपरी पायदान पर बैठे लोगों की भोग और विलासिता को नियंत्रित किया जाए। एक बार गांधी जी ने कहा था कि प्रकृति के पास सब लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त साधन है, मगर यह सभी लोगों के लालच को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। इसे अगर और सरल शब्दों में कहा जाए तो जब तक हम धरती से केवल अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करेंगे, तब तक धरती को कोई तकलीफ नही है लेकिन अगर आवश्यकताएँ अंतहीन लालच का रूप ले लेगी तो उसका दबाव धरती सह नही पाएगी और गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाएंगी। मगर समस्या यहीं पर है, अमीर और शक्तिशाली, जो सभी विकास नीतियों के साथ पर्यावरण पर भी कब्जा जमाये बैठे है, वे पर्यावरण संरक्षण पर दुनिया भर की बातें करने को तैयार है मगर अपने भोग-विलास और लालच को छोड़ने को तैयार नहीं है। उनके द्वारा किए जा रहे कार्यो पर अगर नजर डाले तो यह साफ हो जाता है कि कहने सुनने के लिए बहुत सारी बातें है, मगर आर्थिक विषमता को जड़-मूल से खत्म करने का ठोस परिणाम आना बाकी है।

करीब 20-22 प्रतिशत लोग ही विकसित या अमीर देशों में रहते है फिर भी औद्योगिक कचड़े में उनकी हिस्सेदारी 70 प्रतिशत तक है और वो भी तब जब वो कई हानिकारक उद्योगों को काफी पहले अपने देश से बाहर निकाल चुके है।समय-समय पर कई खबरें सुर्ख़ियों में रहती हैं कि इन देशों के औद्योगिक कचड़े को किसी न किसी माध्यम से गरीब देशों में पहुंचाया जाता है। सिर्फ वस्तुओं को पैक करने वाली सामग्री का ही आकलन किया जाए तो केवल इस पैकिंग सामग्री से बहुत बड़े पैमाने पर और अलग-अलग तरीके से पर्यावरण का विनाश हो रहा है।

आज जरूरत इस बात की है कि पर्यावरण संकट की मुख्य जिम्मेदारी सबसे सम्पन्न और भोग विलास का जीवन व्यतीत करने वाले लोग अपना जीवनशैली में बदलाव लाएं और अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करे। आज जरूरत इस बात की भी है कि पर्यावरण की चर्चा को उन एयरकंडीशंड कमरों से बाहर लाया जाए, जहां जमीन की माटी की सुगंध पहुंच ही नहीं रही है ताकि हकीकत की धरातल पर पर्यावरण संरक्षण की चर्चा हो। अतः इस पर्यावरण संकट को और अधिक विकट होने से बचाना है तो अपने संकीर्ण स्वार्थों से बाहर निकल कर बुनियादी तौर से एक नये तरह के विकास के बारे में सोचना होगा, एक ऐसा विकास जिसमें पर्यावरण और इस पर निर्भर जीवों को भी फलने-फूलने का पूरा मौका मिले। एक ऐसा विकास जो असमानता और विलासिता का प्रतीक न हो बल्कि समानता और सादगी का प्रतीक हो और सबके हित में हो।

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