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अश्विनी प्रताप सिंह |

जलवायु दुनिया में हर इंसान के जीवन से जुड़ा एक अहम विषय है। मानव जीवन को जलवायु की दशा और दिशा हमेशा प्रभावित करती है। अगर धरती पर अनुकूल जलवायु नहीं होती तो मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मगर कुछ मानवीय भूलों और प्राकृतिक गतिविधियों के कारण जलवायु की स्थिति में परिवर्तन हो रहा है।

विगत कुछ दशकों और वर्षों में गर्मी की समय सीमा में बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2015 में यूएन ने एक जलवायु रिपोर्ट प्रकाशित किया, जिसमें इस बात का उल्लेख किया गया कि 2019 सबसे गर्म वर्ष तथा 2010-2019 सबसे गर्म दशक होगा। उसी रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख किया गया कि वर्ष 2019 में वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों का स्तर काफी बढ़ जायेगा। इन्हीं कारणों से जलवायु के स्वरूप में बदलाव आ रहा है, जिसे जलवायु परिवर्तन कहा जा रहा है। जलवायु में हो रहे परिवर्तन का स्वरूप नकारात्मक है, जिसके कारण पृथ्वी पर रहने वाले जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है। 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन के पहल से तैयार रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के भौतिक संकेतों जैसे तापमान में वृद्धि, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी, सामाजिक-आर्थिक विकास, मानव स्वास्थ्य, प्रवास और विस्थापन, खाद्य सुरक्षा और भूमि तथा समुद्र के पारस्थितिक तंत्र में हो रहे व्यापक बदलाव की तरफ इशारा किया गया है। 

धरती के तापमान में अत्यधिक और लगातार बढ़ोतरी का एक कारण बढ़ता हुआ पर्यावरण प्रदूषण भी है जिसने जलवायु परिवर्तन की स्थिति को और विकट बना दिया है।जलवायु परिवर्तन के कारण सम्पूर्ण विश्व पर आपदाओं के संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसके परिणाम भी परिलक्षित होने लगे हैं जैसे मौसम में हो रहे शीघ्रता से घातक बदलाव। बाढ़, सूखा, लू, जंगल में आग और स्थानीय चक्रवातों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका में जमी बर्फ के पिघलने की रफ्तार बढ़ती जा रही है, जिससे समुद्र के जल-स्तर में बढ़ोतरी हो रही है। माल्दीव की समुद्री तल से उचाई कम होने के कारण यह द्वीपीय राष्ट्र विशेष जोखिम में हैं। दूसरी तरफ दक्षिण अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, एशिया और ओशिनिया सहित अधिकांश भू-भाग औसतन रूप में अधिक गर्म रहा है,जबकि उत्तरी अमेरिका का एक बड़ा क्षेत्र हालिया औसत से अधिक ठंडा रहा है। 

उपरोक्त संदर्भों और तथ्यों पर गौर करें तो स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन एक विकट समस्या है। वक्त रहते अगर इस समस्या का समाधान नहीं ढूंढा गया तो धरती पर जीवन संकट में आ जायेगा। ऐसा नहीं है कि इस दशा को सुधारने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। विश्व के सभी देश सामूहिक और व्यक्तिगत रूप में भी जलवायु परिवर्तन से लड़ाई लड़ रहे हैं।

वैश्विक स्तर पर प्रयास द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही आरंभ हो गये और पहला सम्मेलन 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन के माध्यम से संपूर्ण विश्व को एकसाथ एक मंच पर लाने का प्रयास किया गया और तय हुआ कि प्रत्येक देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपने-अपने देश में नियम बनाएंगे। इसी बात को मजबूती प्रदान करने के लिए 1972 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का गठन किया गया । हालांकि इस सम्मेलन के पश्चात विश्व समुदाय को एकसाथ एक मंच पर आने में 20 वर्षों का लंबा समय लगा। वैश्विक स्तर पर सामूहिक प्रयास स्टॉकहोम सम्मेलन के दो दशक बाद 1992 से ब्राज़ील के रियो डी जनेरियो में दिखा। इस सम्मेलन में विभिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधि एकत्रित हुए और जलवायु परिवर्तन पर एक बार फिर से चर्चा हुई। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से जुड़े कार्य योजना पर चर्चा के साथ भविष्य में उस कार्य योजना के क्रियान्वयन की दिशा क्या होगी, उस पर एक साझा समझ विकसित करने का प्रयास किया गया।

इसके बाद COP-21 के बैठक का आयोजन 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2015 के बीच पेरिस में हुआ। इस सम्मेलन में दुनियाभर के देश शामिल हुए। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन को रोकने हेतु एक समझौता किया गया जिसे आज पेरिस समझौता कहा जाता है। इस समझौते में तय किया गया की वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से कम किया जाए और प्रयास किए जाएं कि तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़े। वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए आज भी प्रयास जारी है और वैश्विक सम्मेलनों ने इस प्रयास को बल दिया है। मौजूदा हालात में नेट जीरो एमिशन हासिल करने का संकल्प लेने वाले देशों को हालात हाथ से निकल जाने से पहले कुछ ठोस कदम लेने होंगे। जलवायु कार्रवाई योजनाओं पर अमल करना होगा और सभी के सुरक्षित भविष्य के प्रति प्रयास और संकल्प दर्शाना होगा।

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